Friday, 7 March 2008

इजराइल की दादागीरी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ीराजनीतिक दृष्‍टि से, भारत की जनता के साथ-साथ उत्‍तरोत्‍तर सरकारों के लिए चिंता का मुख्‍य विषय अपनी जायज राष्‍ट्रीय आकांक्षाओं को प्राप्‍त करने के लिए फिलिस्‍तीनी जनता का संघर्ष है। एक ऐसे देश के रूप में जिसने कई दशकों तक उपनिवेशी आधिपत्‍य के खिलाफ लड़ाई लड़ी, अपने स्‍वयं के स्‍वतंत्र राष्‍ट्र के लिए फिलिस्‍तीनी जनता की इच्‍छा का समर्थन करना और उनके साथ सहानुभूति व्‍यक्‍त करना भारत के लिए स्‍वाभाविक है। महात्‍मा गांधी ने बहुत पहले यहूदी नेताओं के एक शिष्‍टमंडल से कहा था: ‘फिलिस्‍तीनी जनता के लिए फिलिस्‍तीन उसी तरह है जिस तरह फ्रांस फ्रांस की जनता के लिए और इंग्‍लैंड इंग्‍लैंड की जनता के लिए है।’ कृपया नोट करें कि गांधी जी ने यह नहीं कहा कि फिलिस्‍तीन मुसलमानों के लिए है या कि अरबों के लिए है; उन्‍होंने चतुराई से ‘फिलिस्‍तीनी जनता’ शब्‍द का प्रयोग किया और इस प्रकार स्‍पष्‍ट संदेश दिया कि फिलिस्‍तीन उनका होना चाहिए जो फिलिस्‍तीन की धरती पर रहते हैं, उनकी नस्‍ल या धर्म चाहे जो भी हो।

नदी की धारा की तरह जीवन कभी नहीं रुकता है। 1931 में लंदन में यहूदी नेताओं के साथ महात्‍मा गांधी की बैठक के बाद से आज विश्‍व काफी आगे निकल गया है। इजराइल अस्‍तित्‍व में आ गया है और अंतर्राष्‍ट्रीय जीवन की सच्‍चाई बन गया है। इसके उद्भव के पीछे चाहे जो भी परिस्‍थितियां रही हों, इजराइल इस बात का हकदार है कि सुरक्षित और मान्‍यता प्राप्‍त सीमाओं के साथ शांति एवं अच्‍छे पड़ोसी संबंधों के साथ रहने के अधिकार के साथ उसे अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय का पूर्ण सदस्‍य स्‍वीकार किया जाए। कहने की आवश्‍यकता नहीं है कि यथाशीघ्र ऐसा हो जाने पर, वे न्‍यायोचित और साम्‍यपूर्ण ढंग से अपने पड़ोसियों के साथ अपनी सभी समस्‍याओं का समाधान कर लेंगे।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संकल्‍प 242 और 338 में समझौता के लिए विस्तृत रूपरेखा दी गई है। दरअसल, मुख्य मुद्दा फिलीस्तीन का है। यहां भी पैरामीटर सुविज्ञात हैं। इजराइल को चाहिए कि वह 1967 में जिन भूभागों पर कब्जा कर लिया था उसे छोड़ दे। व्यावहारिक दृष्टि से, इसका मतलब यह है कि इजराइल भावी फिलीस्तीन राष्ट्र के लिए उतना बड़ा क्षेत्रफल उपलब्ध कराए जितना अधिग्रहीत पश्चिमी तट का है। यह सिद्धांत दोनों पक्षों को मोटे तौर पर स्वीकार्य है। फिलीस्तीन नेतृत्‍व का मानना है कि इजराइल आसानी से वह जमीन नहीं छोड़ेगा जिस पर उसने अपनी बड़ी-बड़ी बस्तियां स्थापित की हैं। साथ ही, इजराइल को भी स्वीकार करना पड़ेगा कि पश्चिमी तट के भूभाग के बदले में, जिसे वे इजराइल में मिलाना चाहते हैं, उनको कहीं और से इसके बराबर क्षेत्रफल फिलीस्तीन राष्ट्र को देना होगा।

इसी तरह, शरणार्थी समस्या के लिए अनेक फार्मूले हैं, जो इजराइल और फिलीस्तीन के बीच 6 मुद्दों में संभवत: सबसे अधिक भावनात्मक है। फिलीस्तीन नेतृत्व संयुक्त राष्ट्र संकल्प 194 में शरणार्थियों को प्रस्तुत ''लौटने का अधिकार'' को औपचारिक रूप से छोड़ने के लिए अनिच्छुक होगा। साथ ही, किसी भी राजनीतिक विचारधारा का कोई भी इजराइली नेतृत्व 4 मिलियन से अधिक फिलीस्तीनी शरणार्थियों की इजराइल वापसी से कदापि सहमत नहीं होगा। ऐसा विश्वास करने के लिए पर्याप्त कारण हैं कि इन मुद्दों का परस्पर स्वीकार्य फार्मूला तैयार करना मानव विदग्धता की सीमा से परे नहीं है।

येरुसलम एक अन्य भावनात्मक और जटिल मुद्दा है। इस मायने में यह और भी जटिल है कि तीन प्रमुख धर्मों के अनुयायियों के लिए येरुसलम का अपरिमित महत्व है। विशेष रूप से, फिलीस्तीनी नेतृत्व को पूरी दुनिया के मुसलमानों की भावनाओं को ध्यान में रखना होगा। दोनों पक्षों के बुध्दिजीवियों ने इसका समाधान निकालने के लिए पिछले दो दशकों से काम किया है। येरुसलम के प्रश्न का कोई समाधान दोनों पक्षो के सभी लोगों को संतुष्ट नहीं करेगा। इन सभी प्रश्नों पर सहमति बनाने का प्रयास करने के लिए दोनों पक्षों के नेताओं को साहस और राजनीतिमत्‍ता का प्रदर्शन करने की आवश्यकता होगी। इजराइल में और फिलीस्तीन में भी जहां तक समझौता व्‍यापक रूप से स्‍वीकार्य है।

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